राष्ट्रीय राजनीति में ममता बनर्जी

Editorial

Mamata Banerjee in national politics : पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का झंडा बुलंद करने के बाद ममता बनर्जी की नजर अब राष्ट्रीय राजनीति पर टिक गई हैं तो यह उचित भी है। देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण को रोकने के लिए मजबूत विपक्ष आवश्यक है। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति का दंभ भरने वाली कांग्रेस खुद दिशाहीन नजर आ रही है तो उससे इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में ममता बनर्जी अगर आगे आकर विपक्ष को नेतृत्व देने का साहस कर रही हैं तो यह सराहनीय है। साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव और उससे पहले अगले वर्ष होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को चुनौती देने की तैयारी कर रही ममता बनर्जी विपक्ष के उन नेताओं को एकजुट कर रही हैं, जोकि भाजपा को पछाडऩे में उनके सहयोगी बन सकते हैं। लेकिन देश में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात उनके एजेंडे में नहीं है। हालांकि इस वर्ष जुलाई में जब वे दिल्ली आई थीं तो उन्होंने सोनिया गांधी से मुलाकात की थी, इसके अलावा आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी उन्होंने चर्चा की थी।

देश में साल 2014 के बाद से विपक्षी गठबंधन की चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन ठीक चुनाव से पहले सभी अलग-थलग हो जाते हैं। अब 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस दोनों झंडाबरदार बनने की चाहत रखकर विपक्ष को अपने-अपने खेमे की तरफ लुभाने में जुटे हैं। जुलाई में ममता बनर्जी के सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद ऐसी चर्चा थी कि वे चाहती हैं कि कांग्रेस उनके नेतृत्व में आगे चलने को तैयार हो। हालांकि कांग्रेस नेताओं की खुद्दारी आड़े आ गई थी और उन्होंने खुद को राष्ट्रीय पार्टी बताते हुए एक क्षेत्रीय पार्टी की मुखिया और मुख्यमंत्री के नेतृत्व को स्वीकार करने से मना कर दिया था। इसके बाद से यह तय नहीं है कि अगर विपक्ष खेमेबंदी करता है तो उसका नेतृत्व कौन करेगा।

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सभी यह मान बैठे थे कि ममता बनर्जी ने राज्य की सत्ता गंवा दी है। भाजपा ने जिस आक्रामक अंदाज में बंगाल में तृणमूल के नेताओं को साथ लिया और ममता बनर्जी पर चहुं ओर से हमले किए, उसके बाद उसकी जीत पक्की मानी जा रही थी, लेकिन फिर ममता बनर्जी एकाएक पूरे चुनाव पर छा गईं। उन्होंने भाजपा के हाथों से जीत खींच कर फिर सत्ता कायम करने और उपचुनाव में भवानीपुर से रिकॉर्ड तोड़ वोट से जीत हासिल करने के बाद उनका मनोबल सातवें आसमान पर है। इस दौरान विपक्ष के उन नेताओं जोकि भाजपा को हरा नहीं पा रहे हंै, ने तृणमूल कांग्रेस की जीत का जश्न मनाया। कड़े मुकाबले में अपने दम पर पार्टी को जीत दिलाने की वजह से ममता बनर्जी अब यह मानकर चल रही हैं कि देश के अन्य राज्यों में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ गई है, जिसे कैश कराया जा सकता है।

कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस का गठन करने वाली ममता बनर्जी दिल्ली से ही बंगाल की सियासत में शिफ्ट हुई हैं। अगले पांच वर्ष बंगाल में उनकी सत्ता को कोई छू भी नहीं सकता, तब वे देश के दौरे पर निकल पड़ी हैं। वे अब बंगाल तक सिमटकर नहीं रह जाना चाहती हैं, उनका मकसद अब पार्टी को राष्ट्रीय फलक पर ले जाने का है और यह संभव भी है। इसकी वजह यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ खड़े होने की जैसी क्षमता ममता में है, वह कांग्रेस के नेताओं में नहीं दिखती। जो आक्रामकता भाजपा के खिलाफ चाहिए वह ममता बनर्जी के अलावा मौजूदा समय में और किसी विपक्षी नेता में नहीं दिखती।

ममता चाहती हैं कि तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर 2024 के लिए एक मोर्चा बनाएं। इनमें कांग्रेस, टीएमसी, एनसीपी, शिवसेना, एसपी, बीएसपी और आरजेडी जैसे तमाम विपक्षी दल एक साथ आएं। लेकिन यह असंभव जान पड़ता है। शिवसेना ने इस मामले में अपने पत्ते खोल दिए थे, पार्टी के मुखपत्र सामना में अपने कॉलम में शिवसेना नेता संजय राउत ने टीएमसी और आम आदमी पार्टी जैसे दलों को खेल बिगाडऩे वाला करार दिया था। राउत ने विपक्ष के नेतृत्व के मुद्दे पर खींचतान के बीच राहुल गांधी को ही इसके लिए एकमात्र विकल्प बताया था। ऐसा करने की फौरी वजह महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार को चलाए रखने की मजबूरी हो सकती है।

ममता बनर्जी ने अब अपनी पार्टी का विस्तार भी शुरू किया है, इस दौरान उन्होंने भाजपा, कांग्रेस और जेडीयू के जाने-पहचाने चेहरों को तृणमूल में शामिल किया है। इनमें 1983 क्रिकेट विश्व कप विजेता टीम के सदस्य और कांग्रेस में मुखर विरोधी रहे कीर्ति आजाद शामिल हैं। इसके अलावा दूसरे नेता हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर हैं। तंवर का पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेता विपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है।

दिल्ली में उन पर हमला भी हो चुका है, जिसका आरोप हुड्डा समर्थकों पर लगा था। कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया था, फिर जदयू के पूर्व महासचिव पवन वर्मा भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। हरियाणा के लिए तृणमूल कांग्रेस नया नाम नहीं है, अब आम आदमी पार्टी को तृणमूल कांग्रेस से दिक्कत नहीं है वहीं इनेलो भी दोनों के साथ चलने को राजी हो सकती है। कांग्रेस के समकक्ष और भाजपा के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस का यह कारवां कितना आगे बढ़ेगा, यह समय साबित करेगा। अभी जो चल रहा है, उस पर सभी की नजरें टिकी हैं।